चुनाव लडऩे और परिवार के पालन पोषण के लिएराजनेताओं के पास कहां से आये पैसा?
अगर राजनीतिक दल नहीं करता अपने कार्यकर्ता की आर्थिक सुरक्षा की गारंटी तो देनी चाहिए साधन जुटाने की छूट
*महेंद्रगढ़ (प्रिंस लांबा)।*
आज जनता, पत्रकार और समाज सुधारक सब राजनेताओं को ही कोसते हैं, पर इनका दर्द कोई नहीं जानना चाहता। क्या वे जन्म से ही भ्रष्ट होते हैं या हालात उन्हें भ्रष्ट होने को मजबूर कर देते हैं? इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या बिना भ्रष्ट हुए चुनाव लड़ा जा सकता है या राजनीति की जा सकती है? दूनिया के दूसरे लोकतंत्रों में क्या व्यवस्था है? सच्चाई ये है कि राजनीति में लोग जनसेवा की भावना से ही आते रहे हैं पर राजनीतिक दलों ने इन लोगों की जिदंगी की हकीकत हो अनदेखा किया है, इसलिए राजनीति का स्तर गिरा। विभिन्न रातनीतिक दलों के नेता राजनीति में सफल होते हुए हजारों करोड़ के मालिक कैसे बन जाते हैं? उन्हें दल के पुराने नेताओं से ज्यादा अहमियत कैसे मिलती है? वैचारिक आग में तपा एक अदना-सा सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति के शिखर पर पहुंचकर अपराध का पर्याय कैसे बन जाता है? जनता की समस्याओं व दयनीय हालातों पर झूठे आंसू बहाने वाले वामपंथी नेता कैसे निजी जीवन में पांच सितारा ऐशो-आराम का मजा लेते हैं?
एक कार्यकर्ता अगर सच्चाई और ईमानदारी से समाज में काम करता है तो उसे न तो अपने बड़े राजनेताओं का दूलार मिलता है और ना ही जनता से कोई आर्थिक मदद। ऐसे में अगर राजनीतिक कार्यकर्ता के कंधों पर अपने परिवार का बोझ भी हो तो वो अपना परिवार कैसे पाले? मजबूरन, उसे दलाली करने पड़ती है। एक बार दलाली में सफलता मिली तो वह समाजसेवा भूलकर केवल शुद्घ दलाली करने में व्यस्त हो जाता है। इसी तरह चुनाव लडऩे के लिए हर प्रत्याशी को मोटी रकम चाहिए। आप कितने भी अच्छे व्यक्ति क्यों न हों और आप समाज के बारे में कितना ही अच्छा सोचते हों पर ईमानदारी से चुनाव नहीं लड़ सकते। इसलिए अगर आप विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लडऩे का फैसला करो तो चुनाव के खर्चे के लिए मोटी रकम उद्योगपति या राजनीतिक दल ही देता है। कितनी रकम इकट्ठा होती है कोई नहीं जानता। जाहिर है कि चुनाव की अफरा-तफरी में कोई नहीं पूछता कि तुमने चुनाव के नाम पर कितने रकम इकट्ठा की और कितनी रकम खर्च की? ऐसा पैसा प्राय: प्रत्याशी ही हडफ़ कर जाता है। इस समस्या का बेहतर विकल्प है जो दुनिया के बड़े लोकतंत्रों में अपनाया जा रहा है।
अगर राजनीतिक दल अपने समर्पित कार्यकर्ता की आर्थिक सुरक्षा की गारंटी नहीं कर सकता तो उसे अपने कार्यकर्ता को साधन इकट्ठा करने की छूट दे देनी चाहिए। हर कार्यकर्ता को छूट होनी चाहिए कि वह एक धर्मार्थ ट्रस्ट का पंजीकरण करवा ले, जिसमें उसके परिवार के दो से अधिक सदस्य न हों। शेष सदस्य समाज के अन्य क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्ति हों। जो भी धन इकट्ठा किया जाए वह इसी ट्रस्ट में जमा हो। इसमें एक निश्चित सीमा तक धन राजनेता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निकाला जाना मान्य हो। शेष धन समाज के कार्यों या चुनाव पर खर्च किया जाए। दुनिया के लोकतंत्रों में चुनाव लडऩे वाले कुछ ऐसी ही व्यवस्था के चलते आराम से अपना राजतनीतिक जीवन चला रहे हैं।
अभी तक राजनीतिक दलों ने या सरकार ने यहां तक कि चुनाव आयोग ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया है। भारत में ट्रस्ट पंजीकरण कराना हो तो यह घोषणा करनी होती है कि इसके माध्यम से कोई राजनीतिक नहीं किया जाएगा यानि सरकार राजनीतिक कार्य को व्यवसाय मानती है, धर्मार्थ कार्य नहीं। फिर यह क्यों कहा जाता है कि राजनेता समाज के लिए कार्य करते हैं। अगर राजनीति धर्मार्थ कार्य नहीं है तो फिर क्या यह भी धंधा है? चुनाव आयोग व सरकार को चाहिए कि नियमों में बदलाव करें और राजनीतिक जीवन जीने वालों की जरूरतों को ध्यान में रखकर कानून बनाएं। जैसे- ट्रस्ट के पंजीकरण में उसके गैर राजनीतिक होने की अनिवार्यता न हो। ऐसे ट्रस्टों को दिए गए धन पर कर में छूट हो। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ट्रस्टी ट्रस्ट के पैसे का दुरूपयोग न करें। राजनीतिक कार्यकर्ता की निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रावधान इस न्यास के संविधान में हों। इस तरह जो व्यवस्था बनेगी उसमें भ्रष्टाचार की बजाए पारदर्शिता ज्यादा होगी। राजनेता को बेईमानी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उसके मन में असुरक्षा की भावना नहीं रहेगी। जनता को भी पता होगा कि उसका विधायक या सांसद अपना जीवन कैसे जी रहा है? राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चिंता जताने में कोई पीछे नहीं रहा है। सर्वोच्च अदालत, संसद और स्वयं प्रधानमंत्री तक इसपर अनेक बार वक्तव्य दे चुके हैं पर लगता है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार से निपटने का रास्ता किसी के पास नहीं है। ऐसे में ट्रस्ट के इस विकल्प पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।