सत्य खबर, महेंद्रगढ़, ब्यूरो रिपोर्ट
सत्य खबर: हाल ही में हुई राव इंद्रजीत सिंह की पाटोदा रैली राजनीतिक चर्चा बनी हुई है। जहां राव समर्थकों के हौंसले अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, वहीं राव भी अपने जन समर्थन के अहंकार का साक्षात्कार पार्टी नेतृत्व को करवाने में सफल रहे हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की हाजिरी में उन्होंने जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी की छीछालेदर की वह वास्तव में नेतृत्व की नींद हराम करने वाली है ।
परंतु इस कौतूहल से बाहर आकर राव को धरती पर अपना राजनीतिक आकलन करने का संदेश भी यह रैली छोड़कर गई है। जहां तक रैली में आई भीड़ का विषय है इसे राजनीतिक अर्थों में एक सफल रैली कहा जाएगा, क्योंकि पंडाल के अंदर व बाहर जो लोगों की संख्या दिखाई दी वह इस रैली की सफलता का संदेश दे रही थी। परंतु यहां जो वास्तविक संख्या थी वह इस रैली से पहले किए गए प्रचार प्रसार की मात्रा, इसके लिए इकट्ठा किए गए चंदे, इसमें लगे हुए कार्यकर्ता एवं जितने क्षेत्र से लोग बुलाए गए थे उनकी तुलना में जितनी संख्या में लोग पहुंचे वह स्वयं राव के लिए चिंता और चिंतन का विषय है। इस रैली में मुख्य रूप से दक्षिणी हरियाणा के 5 जिलों के लोगों ने भाग लिया। इसमें झज्जर, रेवाड़ी, महेंद्रगढ़, गुड़गांव एवं मेवात जिले सम्मिलित थे। इसमें राव का स्वयं का संसदीय क्षेत्र एवं उनके राजनीतिक मित्र चौधरी धर्मवीर के संसदीय क्षेत्र के अतिरिक्त मुख्य भागीदार के रूप में अरविंद शर्मा की हार को जीत में बदलने वाला कोसली हल्का भी सम्मिलित था। स्वयं राव एवं उनकी टीम के अलावा दो मंत्री व दो विधायकों एवं कई पूर्व विधायकों ने भी पसीना वहाया था। इस सबके बावजूद रैली का वास्तविक आंकड़ा यदि दस हजार के आसपास रह जाए तो यह वास्तव में राव के लिए चिंता का विषय है। जहां राव समर्थक लाखों की भीड़ का प्रचार करने का दंभ भर रहे हैं वे इस बात को भूल रहे हैं कि आज की राजनीति में भीड़ से पहले ही कुर्सियां गिनने वाले पंडाल में पहुंच जाते हैं।
भीड़ की संख्या की पृष्ठभूमि में इस बात पर भी चिंतन करने की आवश्यकता है कि इसमें आए हुए लोग वास्तव में क्या राव के प्रत्यक्ष समर्थक थे या विभिन्न टिकटार्थियों एवं मंत्री व विधायकों के प्रयास से आए हुए लोग थे। इनमें अधिकांश भीड़ लाने वाले वह नवयुवक थे जो वर्षों से किसी न किसी टिकट की लालसा मेँ राव से नज़दीकियां बनाए हुए हैं, या वह विधायक एवं मंत्री थे जो या तो अपनी कुर्सी बचाने के प्रयास में हैं या कुर्सी के लिए प्रयासरत हैं। इन जिलों की ग्राउंड रिपोर्ट यह संकेत देती है कि इन लोगों द्वारा किया गया अपना अपना शक्ति प्रदर्शन इसकी पृष्ठभूमि में था। यही कारण था की रैली में लगाए जाने वाले नारों का उत्तर भीड़ से चुनिंदा समूह से ही आ रहा था।
जहां तक भीड़ में राव के भाषण का प्रश्न है इसमें उनका राजनीतिक बड़बोलापन मर्यादाएं लांघ रहा था। राष्ट्रीय स्वयं संघ जिसे भाजपा आदर पूर्वक ‘मातृ संगठन’ के रूप में संबोधित करती है उस पर अमर्यादित टिप्पणी राव के अहंकार की पराकाष्ठा थी। इसके अतिरिक्त पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की उपस्थिति में पार्टी की जो ‘सेवा’ राव ने अपने भाषण में की वह इस स्तर के नेता की स्वयं की गरिमा से भी परे थी। इस रैली के मंच से प्रदेश अध्यक्ष असहज एवं असहाय दिखे। ऐसा नहीं था कि यह सब राव ने भावनात्मक आवेश आकर में किया हो। क्योंकि जिस तरह से मोबाइल में दर्ज नोट का सहारा ले रहे थे उससे यह स्पष्ट था कि सब कुछ तैयारी के साथ किया जा रहा था। इन सब बातों पर पार्टी के साथ-साथ स्वयं राव को भी आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है।
जहां राव ने अपने राजनीतिक विरोधियों को दुश्मन की संज्ञा दी वह भी राजनीतिक गरिमा से परे थी। राजनीति में विरोध को दुश्मनी नहीं कहा जा सकता। हांँ, जिस अहीर कॉलेज के मुद्दे पर उन्होंने अपना जवाब दिया वह जवाब ही कई प्रश्न अपने पीछे छोड़ गया। कालेज की जमीन की रजिस्ट्री वाली बात को एक तरफ करके भी देखें तो राव विरोधियों के इस प्रश्न को राव गोल कर गए कि पूरे इलाके ने जिस संस्था को एक एक रुपया इकट्ठा करके खड़ा किया था वह संस्था एक परिवार की बपौती कैसे बन गई। इस प्रश्न को अभी तक उत्तर की इंतजार है। कॉलेज के प्रांगण में लगी इसके निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले कर्णधारों की मूर्तियां इस बात का अहसास करवाती हैं कि इस क्षेत्र की अनेक तत्कालीन महान हस्तियों ने जन सहयोग से इसे खड़ा किया था। किसी एक परिवार या समूह के एकाधिकार पर प्रश्न करने का अधिकार न केवल राव विरोधियों को है बल्कि इस क्षेत्र के प्रत्येक नागरिक को यह प्रश्न पूछने का अधिकार है। अतः इस पर बुरा मानने की अपेक्षा बड़े दिल से इसकी सदस्यता आम आदमी के लिए खोलकर राव को बड़ा दिल दिखाना चाहिए था।
जहां तक थाली में छेद करने की बात है इसका जवाब तो शायद उनके कांग्रेसी मित्रों के पास ही होगा। जहां तक उनकी पैराशूट से आए नेताओं एवं धरती से ऊपर आने वाले नेताओं के बारे टिप्पणी है इसमें भी उन्होंने राजनीतिक ईमानदारी का परिचय नहीं दिया। संभवत: राव यह भूल गए कि उनका स्वयं का राजनीतिक जन्म राव तुलाराम की शहादत एवं उनके पिता स्वर्गीय राव बिरेंदर सिंह जी के राजनीतिक पहाड़ पर हुआ था। फिर उनको धरती की गहराइयों का आभास कैसे हुआ ? हां इससे यह बात स्पष्ट है कि आम आदमी से उठे हुए राजनीतिक नेतृत्व से राव को कितनी पीड़ा है। परन्तु यह समझ से परे है कि इतनी बड़ी राजनीतिक विरासत के मालिक एवं इतने लंबे राजनीतिक जीवन के बावजूद क्षेत्र के नए नेतृत्व से इनमें इस कदर असुरक्षा का भाव क्यों है ?
परंतु फिर भी राव की एक उपलब्धि इस रैली में महत्वपूर्ण मानी जा सकती है। जहां के किसानों ने प्रदेश अध्यक्ष द्वारा पार्टी कार्यालय के उद्घाटन में भी व्यवधान डाला था उन्हीं किसानों ने इस रैली में व्यवधान से परहेज किया। राज्य की सुरक्षा एवं गुप्तचर एजेंसियां भी निश्चिंत दिखाई दी क्योंकि उनके पास इस बात की सटीक सूचना थी कि किसान इस रैली में किसी तरह की बाधा नहीं बनेंगे। परंतु इसकी पृष्ठभूमि में झज्जर यादव सभा के झंडे के नीचे काम करने वाले रैली के आयोजकों की भूमिका अधिक रही है जो रैली के आयोजकों की भूमिका से इतर कांग्रेस के प्रतिबध्द कार्यकर्ता भी थे। अतः इसे राव साहब की व्यक्तिगत उपलब्धि की अपेक्षा राजनीतिक प्रबंधन कहा जाना ज्यादा उचित होगा। संभवत: राव द्वारा अपने भाषण में किसानों के प्रति नरम रुख का संकेत उसी प्रबंधन का एक हिस्सा था।
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संक्षेप में राव को वर्तमान हालातों में धरती पर उतर कर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। क्योंकि आज की पीढ़ी इस तेजी से बदलती दुनिया में पुराने राजनीतिक हथकंडों से काफी दूर निकल चुकी है। अगर राजनीति में जीवित रहना है तो स्टील की रीड को लचीला बनाना पड़ेगा। लोगों के बीच आकर राजनीति करनी पड़ेगी व उनकी अपेक्षा के अनुरूप काम भी करना पड़ेगा औंर उनके तीखे प्रश्नों का उत्तर भी देना पड़ेगा। राव तुलाराम की शहादत चिरस्थाई है एवं इसे हमेशा याद रखा जाएगा। परंतु उनकी शहादत के आधार पर और अधिक राजनीति करने का युग अब समाप्त हो रहा है। बस यही एहसास करने का विकल्प अब उनके पास है जिसे उन्हें अविलंब स्वीकार करना ही पड़ेगा। वरना अब कोई ना किसी का इंतजार करता है और ना ही किसी की परवाह।
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