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Delhi High Court: क्या दिल्ली के अस्पतालों के बिलों का भुगतान अब होगा पारदर्शी? कोर्ट ने सरकार से लिया अहम निर्णय

Delhi High Court ने अस्पतालों और बीमा कंपनियों के बीच लंबित चिकित्सा बिलों के भुगतान को लेकर गंभीर टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा है कि अस्पतालों से डिस्चार्ज होने के बाद मरीजों को अक्सर बीमा कंपनियों और अस्पतालों के बीच बिलों के भुगतान के लिए एक मानसिक संघर्ष करना पड़ता है। इस मुद्दे पर दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार को सख्त निर्देश दिए हैं। कोर्ट ने कहा कि दोनों सरकारों को बीमा कंपनियों, मेडिकल काउंसिल और इंश्योरेंस रेगुलेटरी अथॉरिटी (IRDA) के साथ मिलकर चिकित्सा बिलों के निपटान की प्रक्रिया को पारदर्शी और समयबद्ध बनाना चाहिए। यह कदम उन मरीजों और उनके परिवारों के लिए राहत का कारण बनेगा, जो अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद लंबे समय तक बिलों का भुगतान नहीं होने के कारण मानसिक तनाव में रहते हैं।

सुनवाई के दौरान कोर्ट ने क्या कहा?

दिल्ली हाई कोर्ट की न्यायाधीश न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने इस मुद्दे पर कहा कि यह कोई नई बात नहीं है, बल्कि एक आम सच्चाई है कि इलाज के बाद मरीज और उनके परिवारों को अस्पताल से छुट्टी मिलने पर एक और मानसिक संघर्ष का सामना करना पड़ता है। खासकर तब जब लंबे समय तक अस्पताल में बिताने के बाद मरीजों को बीमा कंपनी द्वारा भुगतान नहीं किए गए बिलों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि अस्पताल से डिस्चार्ज के समय का लंबा इंतजार, पेपरवर्क और बीमा भुगतान में देरी, मरीजों और उनके परिवारों के लिए एक नया मानसिक आघात बन जाता है। कोर्ट ने इसे एक सामाजिक समस्या के रूप में देखा और इसे हल करने के लिए सरकार से त्वरित कदम उठाने की अपील की।

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पूरा मामला क्या था?

दरअसल, यह टिप्पणी एक याचिका की सुनवाई के दौरान आई, जिसमें वकील शशांक गर्ग ने आरोप लगाया था कि साल 2013 में उन्होंने मैक्स सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल, साकेत में सर्जरी करवाई थी। इस दौरान उन्हें कैशलेस बीमा योजना के तहत कवर किया गया था, लेकिन अस्पताल ने उनसे 1.73 लाख रुपये की पूरी राशि अग्रिम जमा करवा ली थी। बाद में बीमा कंपनी ने दावा किया कि उसने पूरा भुगतान कर दिया है, लेकिन अस्पताल का कहना था कि उसे कम राशि मिली है और 53,000 रुपये मरीज द्वारा जमा की गई राशि से काटे गए हैं। शशांक गर्ग ने इसे धोखाधड़ी मानते हुए अस्पताल स्टाफ के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने की मांग की थी। हालांकि, कोर्ट ने इस याचिका को पर्याप्त सबूतों की कमी के कारण खारिज कर दिया, लेकिन कोर्ट ने इसे एक व्यापक सामाजिक समस्या के रूप में देखा।

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कोर्ट का फैसला और सरकार को दिशा निर्देश

दिल्ली हाई कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि इस तरह के मामलों में कई बार नीतिगत सुझाव दिए गए हैं और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने भी मरीजों के अधिकारों का एक चार्टर पेश किया था, लेकिन अब तक इस मामले में कोई ठोस नियामक प्रणाली लागू नहीं की गई है। कोर्ट ने कहा कि अब समय आ गया है जब सरकारों को केवल सुझाव देने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि अस्पतालों, बीमा कंपनियों और मरीजों के बीच संचार और भुगतान की प्रक्रिया तेज और निष्पक्ष हो। अगर ऐसा नहीं होता, तो कोर्ट को जरूरी हस्तक्षेप करना पड़ेगा। कोर्ट ने इस मामले में सरकारों से त्वरित समाधान की उम्मीद जताई है ताकि मरीजों को भविष्य में इस तरह की परेशानी से बचाया जा सके।

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