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Supreme Court On Chhindwara Rite Dispute: सुप्रीम कोर्ट का आदेश. ‘क्रिश्चियन बेटे को आदिवासी कब्रिस्तान में दफनाने की मांग अस्वीकार, उसे निर्धारित स्थान पर दफन किया जाए’

Supreme Court On Chhindwara Rite Dispute: सुप्रीम कोर्ट ने एक अनोखे मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया है, जिसमें एक ईसाई बेटे ने अपने पिता को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने की मांग की थी। यह मामला छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले की दरभा तहसील के छिंदवाड़ा गांव से जुड़ा हुआ है, जहां हिंदू आदिवासी समुदाय और ईसाई समुदाय के बीच कब्रिस्तान को लेकर विवाद पैदा हो गया था।

कब्रिस्तान पर विवाद: गांव में क्या हो रहा है?

सुभाष बघेल, जो कि एक ईसाई पास्टर (पादरी) थे, का 7 जनवरी को निधन हो गया था। उनके बेटे, रमेश बघेल का कहना है कि उनके सभी पूर्वज गांव के कब्रिस्तान में दफनाए गए थे, और अब वह अपने पिता को भी उसी कब्रिस्तान में दफनाना चाहते हैं। हालांकि, गांव के हिंदू आदिवासी लोग इस मांग का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह कब्रिस्तान उनके समुदाय का है और इसे ईसाई परिवारों के लिए नहीं खोला जा सकता। उनका आरोप है कि याचिकाकर्ता इस तरह से सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

क्यों है विवाद?

गांव के हिंदू आदिवासी समुदाय का कहना है कि कब्रिस्तान पूरी तरह से आदिवासी हिंदुओं का है और इसे किसी भी अन्य धर्म के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। उनका तर्क है कि अगर ईसाई समुदाय को वहां दफनाने की अनुमति दी जाती है, तो इससे आदिवासी हिंदू और आदिवासी ईसाई के बीच अशांति फैल सकती है। वहीं, रमेश बघेल का कहना है कि उनका परिवार कई पीढ़ियों से ईसाई है और उनका अधिकार है कि वे अपने पूर्वजों के पास अपने पिता को दफनाएं।

छत्तीसगढ़ सरकार का रुख

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इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में जवाब दाखिल किया। उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत अधिकारों के मुकाबले सामुदायिक अधिकारों को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि छिंदवाड़ा और अन्य चार गांवों के ईसाई समुदाय के लिए प्रशासन ने अलग कब्रिस्तान का प्रबंध किया है। फिर भी, याचिकाकर्ता गांव के कब्रिस्तान में अपने पिता को दफनाने की मांग कर रहे हैं, जो कि प्रशासन के नियमों के खिलाफ है।

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सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई और आदेश

इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बी.वी नागरत्ना और सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने की। सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल से मामले का विवरण पेश करने और हलफनामा दाखिल करने को कहा है। अदालत ने यह फैसला सुरक्षित रखते हुए दोनों पक्षों को न्यायसंगत अवसर देने का निर्णय लिया है।

समाज में धार्मिक और सांप्रदायिक विवादों की संवेदनशीलता

यह मामला एक गंभीर धार्मिक और सांप्रदायिक विवाद का रूप ले सकता है। भारत में धार्मिक और सांप्रदायिक मामलों में संवेदनशीलता अत्यधिक बढ़ गई है। इस मामले में भी आदिवासी हिंदू और आदिवासी ईसाई समुदायों के बीच तनाव बढ़ने का डर है। जहां एक ओर ईसाई समुदाय अपने धार्मिक अधिकारों के तहत पिता को दफनाने की मांग कर रहा है, वहीं दूसरी ओर हिंदू समुदाय इसे अपने सामुदायिक अधिकार का उल्लंघन मान रहा है।

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सामुदायिक एकता पर असर

अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में कोई निर्णय देता है तो यह केवल कानून के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं होगा, बल्कि यह समाज में सामुदायिक एकता और धर्मनिरपेक्षता के लिए भी एक परीक्षा होगी। भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता का पक्षधर है, और ऐसे मामलों में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि अदालत किस प्रकार से संतुलन बनाती है।

अगला कदम क्या होगा?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का देशभर में विशेष ध्यान होगा, क्योंकि यह मामले धर्म, समुदाय और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच टकराव का प्रतीक बन चुके हैं। अगर अदालत याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाती है तो यह आदिवासी समुदायों के लिए विवादों का कारण बन सकता है। वहीं, अगर अदालत आदिवासी हिंदू समुदाय की बात को मानती है, तो इससे ईसाई समुदाय के अधिकारों पर सवाल उठ सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का यह मामला इस बात का उदाहरण है कि कैसे धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दे संवेदनशील बन सकते हैं। इससे यह भी साबित होता है कि अदालतों का कार्य केवल कानूनी दृष्टिकोण से नहीं होता, बल्कि उन्हें समाज में सामुदायिक एकता बनाए रखने और संविधान की भावना के अनुरूप निर्णय लेने का भी कार्य करना होता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर केवल छत्तीसगढ़ में नहीं, बल्कि पूरे देश में महसूस किया जाएगा।

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