सत्यखबर
अफगानिस्तान के मामले में कोई भी फैसला जल्दबाजी में नहीं लिया जा सकता। खासकर भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए यह फैसला बहुत सहज भी नहीं है। अफगानिस्तान मामले में हाल के दिनों में जो परिदृश्य आंखों के सामने आया है, वही संपूर्ण सच नहीं है। कई ऐसे अदृश्य और अनछुए पहलू हैं, जिनका सामने आना बाकी है। तालिबान सरकार भले ही बनने के करीब हो, लेकिन इससे यह पुष्ट नहीं होता कि अफगानिस्तान में सबकुछ सामान्य चल रहा है।
अमेरिकी सैनिकों ने अफगानिस्तान से निकलने और फिर तालिबान ने वहां की सरजमीं पर दबदबा कायम करने में काफी तेजी दिखाई। इससे लगता है कि पर्दे के पीछे बहुत सारी चीजें हैं, जिन्हें हमें समझने की जरूरत है। भारत ने पिछले कुछ वर्षों में अफगानिस्तान के लोगों के साथ मित्रता बढ़ाने की पहल की है। तीन अरब डालर खर्च कर अफगानिस्तान में डैम, सड़क, अस्पताल, संसद भवन आदि बनवाए हैं। ये सभी ऐसे प्रोजेक्ट हैं जो अफगान के लोगों को लंबे समय तक मदद कर सकते हैं। हालांकि, यह देखने वाली बात होगी कि तालिबान इसे अनदेखा करता है या फिर चलने देता है। अफगानिस्तान में भारत का निवेश बढ़ाने का कैसा फैसला था, यह भी भविष्य में पता चलेगा।
हालांकि, कतर में तालिबान के कुछ नेता भारतीय राजदूत से मिले। हमने अफगानिस्तान में भारत की ओर से लगाए गए प्रोजेक्ट को नुकसान न पहुंचाने व वहां फंसे भारतीयों को निकालने की दिशा में बातचीत की है। खबरों के अनुसार, भारत की बात को तालिबान के शीर्ष नेताओं तक पहुंचाने भर का आश्वासन दिया गया है।अफगानिस्तान हमारे लिए रणनीतिक रूप से बहुत अहम है। इसलिए भी यह बहुत संजीदा मसला है। भारत में आंतकवाद को बढ़ावा देने वाला पाकिस्तान हमेशा से तैयार बैठा है और विभिन्न मंचों से जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की बहाली की बात उठाता रहा है। जाहिर है पाकिस्तान अपनी आदत से बाज नहीं आएगा। पाकिस्तान कोशिश कर रहा है कि अफगानिस्तान के साथ भारत के दोस्ताना संबंध कमजोर पड़ें।
पाकिस्तानी सेना व आइएसआइ के अधिकारी अफगानिस्तान में बैठे हुए हैं। वह इस ताक में हैं कि तालिबान में सरकार बनने के मसले में पाकिस्तान पीछे न रह जाए। पाकिस्तान अपने समर्थन वाले तालिबानी गुट को सरकार में आगे करना चाहता है, ताकि भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा दे सके। पाकिस्तानी विदेश मंत्री इस समय विदेश में घूमकर तालिबान सरकार का खुलकर समर्थन कर रहे हैं। वह पाकिस्तान के कम तालिबान के विदेश मंत्री ज्यादा लग रहे हैं।
इस सब मसले को ध्यान में रखना भारत के लिए जरूरी है। अफगानिस्तान की नई सरकार के मसले पर उसके पड़ोसी देश ईरान, तजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान व तुर्कमेनिस्तान का क्या रवैया रहता है, वह तालिबान सरकार को मान्यता देते हैं कि नहीं? भारत को इस पर भी नजर रखनी चाहिए। भारत के लिए यह जल्दबाजी का विषय कतई नहीं हो सकता, क्योंकि तालिबान पूरी तरह से देश पर अपना नियंत्रण नहीं कर पाया है। पंजशीर इलाके में कुछ अलग तरह के गुट हैं जो तालिबान को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। आगे हालात क्या होते हैं, ध्यान में रखना होगा। जो भी हो, हमारा नजरिया भारत के हित को सर्वोच्च प्राथमिकता देने वाला होना चाहिए।
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