BJP, which opposes familyism, wants to win 2024 elections only on the strength of political families
सत्य खबर , चंडीगढ़
कुलदीप बिश्नोई के बीजेपी में जाने की खबर ने दो सवाल खड़े किए है ।पहला क्या बीजेपी राजनैतिक घरानों को कर रही है खत्म । तो दूसरा सवाल खुद परिवारवाद का विरोध करने वाली बीजेपी , सियासी परिवारों के बल पर ही , जीतना चाहती है क्या 2024 का चुनाव । सत्यख़बर तो बीजेपी के सियासी रणनीति का विश्लेषण करेगी ही। आप भी ये जरूर सोचे। कि आखिर बीजेपी की क्या रणनीति है। पिछले छः महीने की राजनैतिक घटनाओं को देखे तो दो घटनाएं काफी महत्वपूर्ण रही है। पहला राज्यसभा के चुनाव तो दूसरा कुलदीप बिश्नोई का काँग्रेस से इस्तीफा देकर बीजेपी में जाना। दोनो ही घटनाओं की बात करे तो राज्यसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने किसी कार्यकर्ता पर दांव लगाने की बजाय एक ऐसे राजनीतिक घराने पर दांव लगाया जिसने सालों तक सत्ता में रहकर सत्ता की मलाई खाया है।बीजेपी खुद को कार्यकर्ताओं की पार्टी कहती है लेकिन जब कार्यकर्ताओं को उनकी मेहनत का श्रेय देने की बात आती है तो बीजेपी किसी सियासी घराने को साधने में लग जाती है। राजयसभा चुनाव में बीजेपी ने कार्तिकेय शर्मा पर दांव लगाया और उन्हें राजयसभा भी भेज दिया। सभी को पता है कि कर्तिकेय के पिता विनोद शर्मा पुराने सियासी खिलाड़ी रहे है। भूपेंद्र सिंह हुड्डा के अच्छे मित्रो में गिने जाते है। जब कांग्रेस की हुड्डा सरकार में हरियाणा में थी। तो विनोद शर्मा की तूती बोलती थी। वो कौन सा काम था जो वो उस सरकार में करा नही सकते थे। लेकिन जैसे ही हुड्डा सरकार जाने को ही हुई वो भी उस जहाज से कूद पड़े और अपनी पार्टी बना ली ।
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हालांकि उनकी पार्टी ने चुनाव में कोई बड़े झंडे गाड़े हो ऐसा नही है। अब जब कि बीजेपी की सरकार आई तो फिर एक बार अम्बाला का शर्मा परिवार सत्ता के केंद्र में आ चुका है। विनोद शर्मा अब सत्ता के सियासी दाव पेंच खेलेंगे लेकिन बेटे कर्तिकेय शर्मा के कंधों के जरिये। चूंकि बेटा ही अब सांसद है। जिस तरह से बीजेपी ने अम्बाला के शर्मा परिवार को सियासी रूप से सक्रिय किया है उससे तो यही लगता है कि पार्टी को उनकी जरूरत थी। क्योंकि उनके ही एक अन्य सांसद अरविंद शर्मा मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोल चुके है। ऐसे में मुख्यमंत्री को ऐसा ब्राह्मण नेता चाहिए था जो अरविंद शर्मा के कद को छोटा कर सके। ऐसे में वो बीजेपी जो परिवारवाद को खत्म करने की आए दिन कसमे खाती है वो परिवारवाद के सूचक अंबाला परिवार के शरण मे जा बैठी और मुख्यमंत्री ने अम्बाला के शर्मा परिवार पर दांव खेल दिया। सियासी तौर पर तो ये मास्टर स्ट्रोक था लेकिन जो लोग परिवार वाद की दुहाई देते है उन्हें आखिर संकट मोचक के रूप में सियासी घराने ही क्यों नज़र आते है।
अम्बाला के शर्मा परिवार को देखकर तो नही लगता कि बीजेपी को परिवारवाद से तौबा है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या वो ऐसा कर सियासी घरानों को राजनीतिक रूप से कमजोर कर रही है। अम्बाला परिवार को देख नही लगता लेकिन कुलदीप बिशनोई को लेकर संभवत ऐसा है। वो कुलदीप जो कभी सियासी तौर पर इतने मजबूत थे कि उन्होंने 2008 में खुलेआम कांग्रेस से बगावत कर दी और 2009 के इलेक्शन में 6 विधानसभा सीट भी जीतकर आए। लेकिन जैसे ही उन्होंने बीजेपी के साथ गठबंधन किया । बीजेपी ने हजका को कमजोर करना शुरू कर दिया। गठबंधन के समय तय हुआ कि बीजेपी और हजका दोनो आधे आधे सीट पर चुनाव लड़ेंगे। दोनो ही पार्टियों के बीच ये समझौता हुआ। लेकिन जैसे ही 2014 का चुनाव आया बीजेपी कुलदीप बिश्नोई को विधानसभा की 25 सीट ही देने को तैयार थी।उस वक्त कुलदीप ने इसे बीजेपी का बहुत बड़ा विश्वास घात बताया था। उनका आरोप था कि गठबंधन के बहाने धन बल के सहारे बीजेपी ने उनके कार्यकर्ताओं को धीरे धीरे अपनी पार्टी में मिला।
उनकी पार्टी को कमजोर कर दिया। ये कहते हुए उन्होंने गठबंधन तोड़ दिया और 2014 के इलेक्शन में वो और उनकी पत्नी ही चुनाव जीत सकी थी। चुनाव में खराब प्रदर्शन के कारण कुलदीप को सियासी तौर पर भारी नुकसान उठाना पड़ा। उनके पास इतनी भी ताकत नही थी कि वो अपनी पार्टी को आगे बढ़ा सकें। ऐसे हालात में उन्होंने कांग्रेस में ही शामिल होना सही समझा। यहा भी उनकी और हुड्डा की अदावत खत्म नही हुई और आखिर में इन्हें अब कांग्रेस भी छोड़नी पड़ी है। सही देखा जाए तो हजका एक परिवार की पार्टी थी और वो परिवार था भजन लाल का । जिसे सही मायने में खत्म करने का काम बीजेपी ने ही किया। अब उसी सियासी पार्टी के साथ वो फिर राजनैतिक कैरियर की शुरुआत कर रहे है। या फिर अपने बेटे को सियासी मुकाम दिलाने की उनकी कोशिश है। जो भी हो कही फिर कुलदीप बिश्नोई ने अंतरात्मा की आवाज सुन गलती तो नही कर दी।
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