सत्य खबर, चंडीगढ़
बता दें कि राष्ट्रीय चुनाव आयोग सियासी पार्टियों को मान्यता देता है और साथ ही चुनाव चिह्न भी आवंटित करता है. चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के मुताबिक ये पार्टियों को पहचानने और चुनाव निशान आवंटित करने से जुड़ा है. कानून के मुताबिक अगर पंजीकृत और मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टी के दो गुटों में सिंबल को लेकर अलग-अलग दावें किए जाएं तो फिर चुनाव आयोग इस पर आखिरी फैसला करता है. आदेश के अनुच्छेद 15 में इस पर विस्तार से जानकारी दी गई है.
ऐसी स्थिति बनती है कि जब किसी एक ही पार्टी में दो गुट एक सिंबल के लिए दावा करते हैं तो ऐसे हालात में चुनाव आयोग दोनों खेमों को बुलाता है. दोनों पक्ष अपनी दलीलें रखते हैं. इसके बाद आयोग की तरफ से फैसला लिया जाता है. लेकिन याद रहे कि चुनाव आयोग का फैसला हर हाल में पार्टी के गुटों को मानना होगा. ऐसे में चुनाव आयोग मुख्य रूप से पार्टी के संगठन और उसकी विधायिका विंग दोनों के अंदर हर गुट के समर्थन का आकलन करता है. आयोग ये राजनीतिक दल के भीतर शीर्ष समितियों और निर्णय लेने वाले निकायों की पहचान करता है.
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चुनाव आयोग यह पता लगाने की कोशिश करता है कि कितने सदस्य या पदाधिकारी किस गुट में वापस हैं. इसके बाद ये भी पता किया जाता है कि प्रत्येक कैंप में सांसदों और विधायकों की संख्या कितनी-कितनी है. इसके बाद सारे आकलन के बाद चुनाव आयोग को ये लगता है कि पार्टी का यह गुट सारे मामलों में अगले गुट से भारी है तो उसे पार्टी का चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिया जाता है. इस तरह से पार्टी के संविधान को भी देखना होता है.
इस तरह से चुनाव आयोग एक गुट का निर्धारण करने में असमर्थ रहता है तो फिर वो पार्टी के सिंबल को फ्रीज कर सकता है. इसके बाद दोनों गुटों को दोबारा नए नामों और सिंबल के साथ रजिस्ट्रेशन करने के लिए कह सकता है. चुनाव नजदीक होने की स्थिति में गुटों को एक अस्थायी चुनाव चिह्न चुनने के लिए कह सकता है. चिराग पासवान और पशुपति पारस के मामले में यही फैसला हुआ है. ऐसे में कोई गुट चुनाव आयोग के फैसले से सहमत नहीं होते हैं तो कोर्ट तक का दरवाजा भी खटखटा सकता है.
एकनाथ शिंदे बनाम उद्धव ठाकरे
एलजेपी का मामला अभी भी कोर्ट में है
ऐसे में देखना है कि शिवसेना पर काबिज होने की लड़ाई किस दहलीज तक पहुंचती है. ऐसे में एकनाथ शिंदे का पड़ला विधायकों की संख्या में मामले में भारी है, लेकिन सांसदों की संख्या अभी भी उद्धव ठाकरे के साथ है. इसके अलावा संगठन के नेताओं को लेकर उद्धव और शिंदे को अपनी-अपनी ताकत दिखानी होगी. इसमें जो भारी पड़ेगा, उसी का कब्जा होगा?
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