सत्यखबर
पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुड्डुचेरी की जनता ने अगले पाँच साल के लिए अपना जनमत दे दिया है. हम इन चुनाव परिणामों को पूरी विनम्रता और ज़िम्मेदारी से स्वीकार करते हैं. चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनावी नतीजों में मिली बुरी हार के बाद कांग्रेस ने ये बयान जारी करके अपनी हार को एक बार फिर स्वीकार कर लिया है. हाल के सालों में पार्टी को इस तरह का बयान कई बार जारी करना पड़ा है. बिहार में हार के बाद भी पार्टी ने नतीजों को ‘विनम्रता से स्वीकार’ कर लिया था. इन विधानसभा चुनावों में सबसे अहम रहा पश्चिम बंगाल, जहाँ कांग्रेस गठबंधन का खाता तक नहीं खुल सका. कांग्रेस ने वामपंथी दलों के साथ गठबंधन किया था, जिसे महाजोट कहा जा रहा था. माना जा रहा था
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कि मुशर्दिबाद और मालदा ज़िलों की सीटों पर परंपरागत रूप से कांग्रेस और कुछ दूसरे इलाक़ों में वामपंथियों को वोट मिल सकते हैं और उनका एक साथ आना उन्हें कुछ सीटें दिला सकता है, लेकिन परिणाम दिखा रहे हैं कि बंगाल की जनता ने इस महाजोट को विकल्प माना ही नहीं. राजनीतिक विश्लेषक उर्मिलेश कहते हैं, “लेफ़्ट और कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में विशाल रैली की थी, लेकिन बावजूद इन्हें एक भी सीट नहीं मिली. लेफ़्ट और कांग्रेस दोनों ही ग़ायब हो गए. पश्चिम बंगाल के लिए कहा जा सकता है कि जो लड़ाई में थे वही नतीजों में हैं. यहाँ टीएमसी और बीजेपी के बीच आमने-सामने की लड़ाई थी. जो किसी भी कारण से बीजेपी के ख़िलाफ़ थे वो तृणमूल कांग्रेस के साथ हो गए. कांग्रेस गठबंधन की बुरी हार को ही बीजेपी ममता बनर्जी की ऐतिहासिक जीत की वजह बता रही है. बीजेपी के सोशल मीडिया प्रमुख अमित मालवीय ने एक टिप्पणी में कहा, “कांग्रेस और लेफ़्ट के सफ़ाए ने पश्चिम बंगाल में बीजेपी को सत्ता में आने से रोक दिया है. पिछले विधानसभा चुनावों में लेफ़्ट और कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में कुल मिलाकर 76 सीटें मिली थीं. इस बार शून्य मिला है. पार्टी की यहाँ चुनाव लड़ने में कितनी दिलचस्पी रही ये इससे ही पता चलता है कि राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल में सिर्फ़ दो विधानसभा क्षेत्रों में रैलियाँ की. विश्लेषक मानते हैं कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के करिश्मा करने की उम्मीद भी नहीं थी.
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यहाँ चुनाव अभियान बेहद विभाजनकारी रहा और चुनाव दो दलों तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही रह गया. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पार्टी को सिर्फ़ 3.02 प्रतिशत वोट ही मिल सके, जबकि पिछले चुनावों में पार्टी को यहाँ 12.25 प्रतिशत वोट मिले थे. कांग्रेस पर नज़र रखने वालीं राजनीतिक विश्लेषक अपर्णा द्विवेदी कहती हैं, “कांग्रेस पश्चिम बंगाल में कुछ कर पाएगी, ऐसी उम्मीद किसी ने नहीं की थी. ख़ुद कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता मान चुके थे कि पार्टी यहाँ लड़ाई में नहीं है. पार्टी ने एक और ग़लती गठबंधन में चुनाव लड़कर की. कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन करके अपनी रही-सही ज़मीन भी गँवा रही है, ऐसा पहले भी देखा गया है.”कांग्रेस को सबसे ज़्यादा उम्मीदें असम और केरल से थीं. असम में प्रियंका गांधी ने धुआंधार चुनाव प्रचार किया और बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ़ से गठबंधन भी किया था. 2016 में असम में कांग्रेस को 26 सीटें मिली थीं, इस बार पार्टी को 29 सीटें मिली हैं, लेकिन पिछले चुनावों के मुक़ाबले पार्टी का वोट शेयर कम हुआ है.
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2016 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 31 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि इस बार 30 प्रतिशत वोट ही मिले हैं. बीजेपी गठबंधन ने असम में 75 सीटें जीतीं. यह राज्य में बीजेपी का दूसरा कार्यकाल होगा, यानी बीजेपी की एंटी इन्कम्बेंसी का फ़ायदा कांग्रेस नहीं उठा पाई और बीजेपी ने 126 सीटों वाली विधानसभा में अपने साझीदारों के साथ मिलकर आसानी से बहुमत का आँकड़ा पार कर लिया. कांग्रेस ने असम चुनावों में पूरी ताक़त झोंक दी थी, गठबंधन सहयोगियों ने भी पूरी मेहनत की थी लेकिन कांग्रेस इस बार कुछ सीटें तो बढ़ा सकी लेकिन बहुमत तक नहीं पहुँच सकी. राजनीतिक विश्लेषक इसे पार्टी के लिए बड़े झटके के तौर पर देख रहे हैं. उर्मिलेश कहते हैं, “असम में कांग्रेस इससे बहुत बेहतर कर सकती थी. सीटें बढ़ने के बावजूद इसे कांग्रेस पार्टी की नाकामी और हार की तरह ही देखा जाना चाहिए. वहीं अपर्णा द्विवेदी मानती हैं कि असम बीजेपी का मज़बूत गढ़ बन चुका है, ऐसे में कांग्रेस के लिए रास्ते वहाँ आसान नहीं थे. अपर्णा कहती हैं, “जिन-जिन राज्यों को कांग्रेस हार जाती है वहाँ उसकी वापसी मुश्किल हो जाती है. असम में भी यही हुआ है. कांग्रेस का जनाधार यहाँ ख़त्म हो गया. कांग्रेस का जनाधार यहाँ ख़त्म हो गया है.
शायद कांग्रेस ये समझ नहीं पा रही है कि उसकी ज़मीन खिसक गई है. अपर्णा कहती हैं, “बीजेपी जानती थी कि वह असम में मज़बूत है इसलिए ही पार्टी ने अपना पूरा फ़ोकस पश्चिम बंगाल पर किया. कांग्रेस के पास असम में बहुत ज़्यादा अवसर नहीं थे. प्रियंका गांधी ने ज़रूर मेहनत की, लेकिन उसके भी वांछित नतीजे नहीं मिल सके. कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती केरल में सत्ता में वापसी करने की थी. केरल का अभी तक का इतिहास है कि हर पाँच साल बाद वहाँ परिवर्तन होता है लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में एलडीएफ़ लगातार दूसरी बार सत्ता हासिल करने में कामयाब रहा है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केरल में कांग्रेस की हार पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में उम्मीदों को भी झटका है. सबसे बड़ा झटका राहुल गांधी के लिए है जो अमेठी में चुनाव हारने के बाद अब केरल के वायनाड से सांसद हैं. उन्होंने पिछले कुछ महीनों में दक्षिण भारत में, और ख़ास तौर पर केरल में, उत्तर भारत की तुलना में राजनीतिक तौर पर सक्रियता दिखाई थी. अपर्णा कहती हैं, “अमेठी में हारने के बाद राहुल गांधी ने केरल को ही अपना गढ़ बनाया है, ऐसे में केरल में जीतना पार्टी के लिए बड़ी चुनौती थी. कांग्रेस ने चुनाव अभियान के दौरान अपनी पूरी ताक़त केरल में लगा दी थी. ये राहुल गांधी के लिए अपना सियासी रास्ता मज़बूत करने का भी अवसर था. ऐसे में कांग्रेस की यहाँ हार बेहद निराशाजनक है. केरल में 140 सदस्यों वाली विधानसभा में लेफ़्ट गठबंधन (एलडीएफ़) को 93 सीटें मिली हैं, दरअसल एलडीएफ़ ने न सिर्फ़ अपनी सत्ता क़ायम रखी है, बल्कि 2016 के मुक़ाबले उसने दो सीटों की बढ़त हासिल की है. वहीं कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन (यूडीएफ़) को 40 सीटें मिली हैं जो पिछले चुनावों से छह कम हैं. कांग्रेस की अपनी एक सीट कम हुई है. कोविड महामारी के बीच एलडीएफ़ ने केरल में सत्ता में वापसी की है. ये अपने-आप में एक इतिहास भी है क्योंकि केरल में जनता हर पाँच साल में सत्ताधारी पार्टी को बदल देती है. अपर्णा द्विवेदी मानती हैं कि हाल के सालों में कांग्रेस के लिए राजनीति में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है और इसकी एक बड़ी वजह ये है कि पार्टी ने अपने खोए हुए ज़मीनी जनाधार को हासिल करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की है. अपर्णा कहती हैं, “पिछले सात सालों से राजनीति कांग्रेस के हित में नहीं जा रही है. कांग्रेस जितनी जल्दी ये समझ ले उतना उसके लिए बेहतर होगा. इसका कारण ये है कि कांग्रेस ज़मीनी स्तर पर ख़त्म होती जा रही है. गठबंधन कर-करके कांग्रेस ने दूसरे दलों को अपनी ताक़त दे दी है, लेकिन दूसरों से उसे कहीं कुछ हासिल नहीं हुआ है. जिन पाँच राज्यों में चुनाव हुए हैं, वहाँ सिर्फ़ तमिलनाडु में ही कांग्रेस सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा रहेगी. यहाँ कांग्रेस को 16 सीटें मिली हैं जो पिछले चुनावों के मुक़ाबले दोगुनी हैं, 2016 में आठ सीटें ही मिल पाई थीं. वहीं केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी में भी कांग्रेस ने सत्ता गँवा दी है. वहाँ पार्टी को सिर्फ़ आठ सीटें मिली हैं पिछले चुनावों में जीती हुई नौ सीटें पार्टी ने गँवा दी है. यानी कांग्रेस को हर जगह हार ही हार देखने को मिली है, उसके लिए मामूली राहत की बात ये हो सकती है कि तमिलनाडु और असम में उसकी सीटों की तादाद बढ़ी है, लेकिन उसका कोई ठोस राजनीतिक लाभ उसे नहीं मिलने जा रहा है. इन चुनावों में कांग्रेस के लिए एक राहत की बात ये भी है कि उसने मध्य प्रदेश के दमोह उप-चुनाव को जीत लिया है. बीजेपी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दमोह उप-चुनाव को अपनी नाक का मुद्दा बना लिया था. यहाँ जीत हासिल करके टूटी हुई कांग्रेस को राज्य में ज़रूर कुछ मनोबल मिलेगा.
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