सत्यखबर, दिल्ली
बता दे की आज का दिन लाल चन्द फ़लक के इस शेर को गुनगुनाते हुए आजा़दी के एक ऐसे मतवाले को याद करने का दिन है जिसके लिए आजा़दी ही उसकी दुल्हन थी. आज का दिन ज़मीन-ए-हिन्द की आज़ादी के लिए हंसते हंसते फांसी पर चढ़ जाने वाले उस परवाने को याद करने का दिन है जिसके ज़ज्बातों से उसकी कलम इस कदर वाकिफ थी कि उसने जब इश्क़ भी लिखना चाहा तो कलम ने इंकलाब लिखा. आज का दिन शहीद-ए-आजम भगत सिंह को याद करने का दिन है. भगत सिंह भारत मां के वही सच्चे सपूत हैं जिन्होंने अपना लहू वतन के नाम किया तो आज हमें आज़ादी का ज़श्न हर साल मनाने का मौका मिलता है.
आज शहीद-ए-आजम भगत सिंह का जन्मदिन है. 28 सितंबर, 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में (अब पाकिस्तान में) उनका जन्म हुआ था. गुलाम भारत में पैदा हुए भगत सिंह ने बचपन में ही देश को ब्रितानियां हुकूमत से आज़ाद कराने का ख़्वाब देखा. छोटी उम्र से ही उसके लिए संघर्ष किया और फिर देश में स्थापित ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाकर हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया. वह शहीद हो गए लेकिन अपने पीछे क्रांति और निडरता की वह विचारधारा छोड़ गए जो आज तक युवाओं को प्रभावित करता है. आज भी भगत सिंह की बातें देश के युवाओं के लिए किसी प्रतीक की तरह बने हुए हैं.
हालांकि यह बहस भी साथ-साथ चलती रहती है कि भगत सिंह जिन्होंने महज़ 23 साल की उम्र में अपनी जान देश के लिए दे दी उनको दूसरे स्वतंत्रा सेनानियों की तरह पहली पंक्ति में जगह नहीं मिलती. शिकायत खास तौर पर महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू को लेकर रहती है. कहा जाता है कि दो स्वतंत्रता सेनानी इतिहास में ऐसे रहें जिनको जो उचित स्थान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला. एक नाम भगत सिंह का होता है तो दूसरा सुभाष चंद्र बोस का. कहा यह भी जाता है कि सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह एक ही विचारधारा के थे, जबकि गांधी और नेहरू उनसे थोड़ा अलग मत रखते थे. महात्मा गांधी तो हिंसा के सख्त खिलाफ थे. आज के दौर में जब नेहरू और गांधी पर कई तरह के इल्ज़ाम लगते हैं तो उनमें से एक यह भी है कि अगर नेहरू और गांधी चाहते तो भगत सिंह राजगुरू और सुखदेव को फांसी से बचाया जा सकता था. वहीं पंडित जवाहर लाल नेहरू पर यह भी इल्ज़ाम लगता है कि उन्होंने अपनी चतुराई से इतिहास के पन्ने में अपने लिए वह जगह बना लिया जो भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस को मिलना चाहिए था.
https://www.youtube.com/watch?v=rCsqxQFaFCo
बता देकी ऐसे में जब आज हर बात के लिए नेहरू और गांधी को कठघरे में डाला जा रहा है तो यह जानना जरूरी है कि भगत सिंह खुद जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी के बारे में किस तरह का विचार रखते थे. साथ ही इस सवाल का जवाब भी तलाशने की कोशिश करेंगे कि क्या वाक़ई महात्मा गांधी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने का प्रयास नहीं किया था, जैसा की कई बार इल्जाम लगाया जाता है?
https://www.youtube.com/watch?v=BXA-lp-NNtc
पूर्ण स्वराज को लेकर गांधी और भगत सिंह के रास्ते बिलकुल अलग थे. गांधी अहिंसा को सबसे बड़ा हथियार मानते थे और उनका कहना था कि “आंख के बदले में आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी”, जबकि भगत सिंह का साफ मानना था कि बहरों को जगाने के लिए धमाके की जरूरत होती है. एक का रास्ता केवल राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण पर केंद्रित था जबकि दूसरे की दृष्टि स्वतंत्र भारत को एक समाजवादी और एक समतावादी समाज में बदलने की थी.
1931 में जब भगत सिंह को फांसी दी गई थी तब तक उनका कद भारत के सभी नेताओं की तुलना में अधिक हो गया था. पंजाब में तो लोग महात्मा गांधी से ज्यादा भगत सिंह को पसंद करते थे. यही वजह है कि भगत सिंह को फांसी मिलने के बाद गांधी जी को भारी विरोध का सामना करना पड़ा.
भगत सिंह की फांसी के तीन दिन बाद, कांग्रेस के कराची अधिवेशन हुआ. उस वक्त देश भर में भगत सिंह की फांसी का विरोध नहीं करने के लिए गांधी के खिलाफ गुस्से का माहौल था. जब गांधी अधिवेशन में शामिल होने के लिए पहुंचे, तो नाराज युवाओं द्वारा काले झंडे दिखाकर उनके खिलाफ नारेबाजी की गई. ”डाउन विद गांधी” लिखा हुआ प्लेकार्ड उन्हें दिखाया गया. यह वह वक्त था जब भगत सिंह युवाओं के प्रतीक बन गए थे.
अब सवाल कि क्या गांधी जी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया. इसका जवाब है बिल्कुल किया था. गांधी और भगत सिंह का आजादी पाने को लेकर रास्ता बेशक अलग रहा हो और इसको लेकर दोनों के बीच मतभेद भी थे, लेकिन अंतिम अवस्था तक आते-आते गांधी को भगत सिंह के प्रति बहुत अधिक सहानुभूति हो चली थी. जब भगत सिंह को तय समय से एक दिन पहले ही फांसी दिए जाने की खबर मिली तो गांधी काफी देर के लिए मौन में चले गए थे.
https://www.youtube.com/watch?v=9LpQrjnD59k
महात्मा गांधी ने 23 मार्च 1928 को एक निजी पत्र लिखा था और भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी पर रोक लगाने की अपील की थी. इस बात का जिक्र My Life is My Message नाम की किताब में है. उन्होंने पत्र में वायसराय इरविन को लिखा था, ”शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है. हालांकि आपने मुझे साफ -साफ बता दिया है कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई भी रियायत की आशा न रखूं लेकिन डा सप्रू कल मुझे मिले और उन्होंने बताया कि आप कोई रास्ता निकालने पर विचार कर रहे हैं.”
गांधी जी ने पत्र में आगे लिखा, ” अगर फैसले पर थोड़ी भी विचार की गुंजाइश है तो आपसे प्रार्थना है कि सजा को वापस लिया जाए या विचार करने तक स्थगित कर दिया जाए. गांधी जी ने आगे लिखा, ”अगर मुझे आने की आवश्कता होगी तो आऊंगा. याद रखिए कि दया कभी निष्फल नहीं जाती.”
गांधी जी द्वारा लिखे इस खत से साफ पता चलता है कि आखिरी समय तक उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों की सजा कम करवाने और उन्हें माफी दिलाने का प्रयास किया. भगत सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए गांधी ने 29 मार्च, 1931 को गुजराती नवजीवन में लिखा था- ”वीर भगत सिंह और उनके दो साथी फांसी पर चढ़ गए. उनकी देह को बचाने के बहुतेरे प्रयत्न किए गए, कुछ आशा भी बंधी, पर वह व्यर्थ हुई. भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन वे हिंसा को भी धर्म नहीं मानते थे. इन वीरों ने मौत के भय को जीता था. इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों.”
https://www.youtube.com/watch?v=EgzXL-BtzuY
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