सत्यखबर
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि की मौत के पीछे बाघंबरी गद्दी मठ की आखिरी वसीयत भी हो सकती है। इस दूसरी और आखिरी वसीयत की महंत को आखिर जरूरत क्यों पड़ी? अपने पहले उत्तराधिकारी को लेकर उनका भरोसा कब और किन वजहों से टूटा? इस पूरे रहस्य को उनके प्रिय शिष्य आनंद गिरि के आस्ट्रेलिया कनेक्शन से जोड़कर देखा जा रहा है। पता चला है कि इसी आखिरी वसीयत को बदलने के लिए महंत पर दबाव बनाया जा रहा था। किसी भी हद तक जाकर महंत को वसीयत बदलने के लिए मजबूर करने वाले कौन थे? अब यह बड़ा सवाल हो गया है।
मठ की अपार संपदा को लेकर महंत की आखिरी वसीयत ही इस विवाद की जड़ बताई जा रही है। सर्वोच्च धार्मिक संस्था अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष के तौर पर नरेंद्र गिरि ताकतवर भी थे और बेशुमार दौलत वाली गद्दी पर आसीन होने की वजह से वैभवशाली भी थे। वर्ष 2000 में पहली बार उनके शिष्य बने राजस्थान के भीलवाड़ा निवासी अशोक कुमार चोटिया निरंजनी अखाड़े में संन्यास दीक्षा ग्रहण करने के बाद आनंद गिरि बनकर उनकी सेवा में लग गए। तब मठ के संपत्ति विवाद में कई बार साहस दिखाकर वह महंत नरेंद्र गिरि का दिल जीतने में कामयाब हो गए थे। इसी करीबी की वजह से वर्ष 2011 में महंत नरेंद्र गिरि ने आनंद को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। इसके लिए उन्होंने आनंद के नाम वसीयत कर दी। इस बीच आनंद गिरि की बढ़ती महत्वाकांक्षा ने गुरु से दूरियां बनानी शुरू कर दीं। इस रिश्ते में दरार कुंभ-2019 से ही आनी शुरू हो गई थी। इस बीच आस्ट्रेलिया में दो विदेशी महिलाओं से अभद्रता के आरोप में आनंद गिरि की गिरफ्तारी ने गुरु-शिष्य के रिश्ते की जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया। बदनामी के वजह से यह दूरियां महंत के दिल तक बन गईं।
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शायद यही वजह थी कि चार जून 2020 को महंत नरेंद्र गिरि ने आनंद गिरि के हक में किए गए उत्तराधिकार को निरस्त करते हुए बलवीर गिरि के नाम दूसरी वसीयत कर दी। इसी दूसरी वसीयत का जिक्र उनके सुसाइड नोट में भी है। अब कहा जा रहा है कि इसी दूसरी वसीयत को बदलवाने के लिए महंत पर दबाव बनाया जा रहा था। इस वसीयत को बदलने के लिए महंत को मजबूर करने की कोशिशें की जा रही थीं। इस कुचक्र में मठ के कौन-कौन से लोग शामिल थे, यह जांच का हिस्सा है।महंत की मौत के दूसरे दिन मठ पहुंचने वाले बलवीर गिरि ने दावा किया था कि सुसाइड नोट की हैंडराइटिंग उनके गुरु महंत नरेंद्र गिरि की ही है। उस पर किए गए हस्ताक्षर को भी वह नरेंद्र गिरि का ही बता रहे थे। लेकिन बाद में वह अपने बयान से पलट गए और कहने लगे कि वह अपने गुरु का हस्ताक्षर नहीं पहचानते। बलवीर गिरि उत्तराखंड के निवासी हैं। वह वर्ष 2005 में निरंजनी अखाड़े में संन्यास ग्रहणकर साधु बने। वर्ष भर से बलवीर गिरि मठ की गतिविधियों में काफी सक्रिय हो गए थे और उनका दखल भी बढ़ गया था।
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