ब्यूरो रिपोर्ट, सत्य खबर। महेंद्रगढ़
राव इंद्रजीत सिंह जिस घराने से आते हैं उनका देश की आजादी के बाद कई दशक तक पूरे अहीरवाल में राजनीतिक साम्राज्य रहा है। उनके स्वर्गीय पिता की तूती बोलती थी तथा वे लंबे अरसे तक अहीरवाल की चौधर के छत्रपति बन कर रहे और इलाके की राजनीति को अपनी उंगलियों पर नचाया। राव इंद्रजीत सिंह उनके बड़े बेटे होने के नाते उनके जीवनकाल में ही उनकी राजनीतिक विरासत के मालिक बन गए थे तथा अपने पिता के सुरक्षित साए में ही उनकी राजनीतिक ताजपोशी भी हो चुकी थी। परंतु बड़े राव के स्वर्गवास के बाद धीरे धीरे रामपुरा हाउस की राजनीतिक विरासत दुबली होती चली गई तथा भाइयों की आपसी दूरियां बढ़ने लगी।
राव ने 2014 में भारतीय जनता पार्टी में प्रवेश मुख्य रूप से अपनी राजनीतिक विरासत को बचाने वह अपनी बेटी को राजनीति में स्थापित करने के उद्देश्य से किया था। भाजपा ने उनकी राजनीति को यथावत रखते हुए उन्हें सांसद के साथ केंद्र में राज्य मंत्री भी बनाया तथा अहीरवाल के टिकट वितरण में उनको इतना स्थान दिया जितना कभी कांग्रेस में, उनको तो छोड़िए, उनके स्वर्गीय पिताजी को भी कभी इतना हिस्सा नहीं दिया। परंतु उनकी बेटी को टिकट नहीं देकर पार्टी ने राव को आहत कर दिया। इस टीस की अभिव्यक्ति राव गाहे-बगाहे पिछली अवधि में भी कभी स्वयं व कभी अपने समर्थक विधायकों के माध्यम से करते रहे। परंतु उन्हें 2019 के चुनाव में बेटी के लिए सुरक्षित जगह मिलने की पूरी उम्मीद थी। परंतु इसे पार्टी की परिवारवाद विरोधी नीति कहें या अन्य किसी कारण से 2019 के चुनाव में भी राव की इस मामले में नहीं चल पाई। 2019 के बाद राव की यह पीड़ा गहरी होती चली गई एवं अब यह असंतोष के रूप में बाहर आने लगी है। इस मामले में राव न केवल आहत हैं अपितु वह असहाय भी महसूस कर रहे हैं। परंतु इस पीड़ा को अभी भाजपा में कोई उपचार नजर नहीं आ रहा है। पाटोदा रैली में उनकी बेटी का चुनाव लड़ने एवं राव द्वारा राजनीति से निवृत नहीं होने की घोषणाएं राव की उसी पीड़ा की अभिव्यक्ति है। राव अपनी बेटी को हर हालत में राजनीति में आगे बढ़ाना चाहता हैं । चाहे बेटी की इसमें रुचि है या नहीं, इस बात की परवाह किए बगैर राव उसे आगे बढ़ना चाहते हैं। यद्यपि यह भी सत्य है कि लड़की सार्वजनिक मंच पर जब बोलती है और उसके जो हावभाव होते हैं उससे ऐसा लगता है कि एक मासूम लड़की को जबरदस्ती राजनीति में धकेला जा रहा है। पटोदा रैली में जब उसने चुनाव लडूंगी की बजाए खेलूंगी बोला तो उसकी यह सम्भवतः स्वाभाविक
अभिव्यक्ति थी। उस लड़की के खेलने खाने के समय को राजनीति में लगाना कितना सही है यह तो राव व उनका परिवार ही फैसला करेगा लेकिन एक बात स्पष्ट है कि राव स्वयं इस बात को लेकर काफी बेचैन हैं और यही उनके आक्रोश का एक कारण बना हुआ है।
इसके साथ ही इस परिवर्तनशील युग में राव को अपनी बढ़ती उम्र एवं परिवार की ढलती राजनीतिक छाया का भी एहसास है। आज प्रजातंत्र जिस दौर से गुजर रहा है वहां सोशल मीडिया और तेज गति वाले संचार साधनों से समाज इतना जागृत हो गया है कि राजनीति के प्रति लोगों का नजरिया बदल गया है। अब राजनीति के निर्धारण के पैमाने बदल गए हैं। लोग अपने प्रतिनिधि से न केवल परिणाम चाहते हैं बल्कि उनसे अपनापन भी चाहते हैं। राव परिवार की विरासत इस बदले हुए पैमाने के अनुकूल नहीं है। राव साहब उस राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी हैं जहां आम आदमी से दूरी बनाए रखना उस व्यवस्था का एक हिस्सा है। इस व्यवस्था में वोटर को जब चाहे तब अपने प्रतिनिधि से बात करने की सुविधा उपलब्ध नहीं है। यह व्यवस्था आम आदमी के दुख दर्द में शरीक होने के लिए समय भी नहीं निकाल पाती। अतः इस विरासत के समर्थकों की संख्या लगातार घट रही है। जहां राव परिवार के समर्थक किसी जमाने में पूरे गांव के गांव और खंड के खंड होते थे वही अब गांव में उनके समर्थकों की संख्या को उंगलियों पर गिना जा सकता है। अब तो उनके पास कार्यकर्ताओं की जगह टिकटार्थियों की एक श्रेणी है जो उनके पार्टी में वर्चस्व के कारण टिकट की लालसा में उनसे जुड़े हुए हैं। उनके लिए जनसभाओं में भीड़ लाते हैं और इसके साथ ही यथा आदेश चंदा भी एकत्रित करते हैं। परंतु राव को यह एहसास है कि जिस दिन पार्टी में वर्चस्व नहीं रहेगा उस दिन यह श्रेणी रातों-रात नदारद हो जाएगी। अतः राव को अपनी इस कमजोरी का भी बखूबी एहसास है जो उनमें असुरक्षा को आक्रोश में बदल रही है।
राव परिवार के राजनीतिक दर्शन का एक पक्ष यह भी है कि जिस समाज कि आप चौधर करते हो उस समाज में आप से बड़ा तो छोड़िए, आपके बराबर भी कोई दूसरा शख्स खड़ा नहीं होना चाहिए। इसलिए उनके स्वर्गीय पिताजी के जमाने से उनकी यह राजनीति रही है कि उनके समाज में जो भी राजनीति में ऊपर उठने की कोशिश करे उसको मूल से नष्ट करने का इरादा रखते हैं। हाल ही में 2019 के चुनाव में टिकट वितरण के दौरान राव ने भाजपा नेतृत्व का अहीरवाल में जो कत्लेआम किया वह सारे क्षेत्र के रोंगटे खड़ा करने वाला था। उन्होंने न केवल अपने अधिकांश विरोधियों को टिकट के स्तर पर ही समाप्त किया अपितु एक आध कोई बच भी गया तो उसको मंत्रिमंडल गठन के समय झटका दे दिया। लेकिन यह सोच आपको क्षणिक संतुष्टि तो दे सकती है परंतु आप में असुरक्षा की भावना लगातार हावी रहती है। हाल ही में जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में भूपेंद्र यादव को कैबिनेट मंत्री बनाया गया तो राव की बेचैनी करवटें लेने लगी। जब प्रधानमंत्री के आदेश पर उनकी जनआशीर्वाद यात्रा का आयोजन हुआ तो राव का यह आक्रोश प्रकट रूप में सामने आया। राव की टीस लाइलाज हो गई। इसी तरह 2019 के चुनाव के बाद मंत्रिमंडल के गठन में एक ऐसे एमएलए को अंतिम क्षणों में मंत्रिमंडल से वंचित करवा दिया जो लोगों के दिलों में जगह बना चुका था। परंतु जब भी हरियाणा में मंत्रिमंडल विस्तार की बात चलती है तो राव परेशान हो उठते हैं और एक काल्पनिक डर उनकी बेचैनी का कारण बन जाता है।
राव की दुविधा और बेचैनी का एक प्रमुख कारण हरियाणा की वर्तमान राजनीतिक स्थिति भी है। यह सत्य है कि राव अब भाजपा में बहुत घुटन महसूस कर रहे हैं। परंतु यह भी सत्य है की वर्तमान स्थिति में उनके पास भाजपा के अलावा दूसरा विकल्प भी तो नहीं है। उनके पास एक विकल्प अपने इन्साफ मंच को राजनीतिक मंच में परिवर्तित करने का है जिसके झंडे तले चुनाव लड़ा जा सकें। परंतु वह बड़े चतुर राजनीतिज्ञ हैं और उन्हें पता है कि उम्र के इस पड़ाव पर न तो इनमें इतनी शक्ति है और न ही सामर्थ्य अथवा जनसमर्थन जो वह राजनीतिक मंच के माध्यम से अपने बल पर कुछ हासिल कर सके। उनको यह अच्छी तरह मालूम है कि इंसाफ मंच के माध्यम से किसी भी उम्मीदवार को विधानसभा या लोकसभा पहुंचाना वर्तमान हालातों में संभव नहीं है। दूसरा विकल्प इनके पास कांग्रेस में सम्मिलित होने का है जिस पर वह कई बार मंथन भी कर चुके हैं परंतु कांग्रेस इस समय स्वयं ही आंतरिक विघटन के दौर से गुजर रही है। अतः वर्तमान हालातों में कांग्रेस में सम्मिलित होना कुएं से निकलकर खाई में गिरने जैसा होगा। परंतु यह निश्चित है कि राव इंद्रजीत सिंह इस समय पार्टी छोड़ने के संकेत तो दे सकते हैं, परंतु 3 साल की सत्ता छोड़कर वह कभी अंतिम फैसला नहीं कर सकते। क्योंकि वह विशुद्ध रूप से सत्ता के आदमी रहे हैं और सत्ता के बिना सड़क की राजनीति करना उनके वश से बाहर की बात है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि राव साहब जितने अहंकार का दिखावा करते हैं उसी अनुपात में अंदर से कमजोर और डरपोक भी हैं। उन्हें बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व का इतना डर है कि जब तक बीजेपी की हार दिखाई नहीं देने लग जाएगी तब तक राव चाहे कुछ भी कहते रहे परंतु पार्टी छोड़ने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे। परन्तु यह सत्य है कि यह हालात राव इंद्रजीत सिंह के लिए घुटन का सबब बनी हुई हैं जो उनके क्रोध और आक्रोश के रूप में बाहर निकलती रहती है।
वास्तव में राव के आक्रोश में स्वयं राव की भूमिका अधिक है जिसका मूल कारण यह है कि बदलते हुए समय के अनुसार वह अपना सही आकलन नहीं कर पा रहे। दीवार पर लिखी हुई इबारत को समझने की बजाय हर बात पर अपनी जिद पर अड़े रहना उनकी आदत का हिस्सा बन गई है। यही कारण रहा है कि चौधरी बंसीलाल, भजनलाल, भूपेंद्र सिंह हुड्डा व मनोहर लाल समेत किसी भी मुख्यमंत्री से राव का वैचारिक सामंजस्य नहीं रहा और उनके इसी स्वभाव के कारण वे स्वयं परेशान रहने के अतिरिक्त पूरे क्षेत्र को विकास से वंचित करवाते रहें हैं।
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