सत्य खबर, हैदराबाद । उत्तर प्रदेश में पिछले सात सालों से आम आदमी पार्टी सक्रिय सियासत कर रही है, लेकिन हकीकत यह है कि सात साल बाद भी पार्टी को यहां कुछ खास हासिल नहीं हुआ है. वहीं, अब विधानसभा चुनाव 2022 की तैयारी में जुटी पार्टी को अब सपा से गठबंधन की आस है. लेकिन समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव द्वंद्व में फंसे हैं. क्योंकि एक ओर चाचा शिवपाल हैं तो दूसरी ओर केजरीवाल की ‘आप’ है.
इधर, किसान मुद्दे के हाथ से निकलने के बाद अब संजय सिंह और पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के पास कुछ खास नहीं बचा है. दूसरी ओर यूपी में विकास के पर्याय बन चुके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को विकास के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी घेरने की कोशिश नहीं कर रही है. सियासी रूप से जागरूक इस प्रदेश में अब तक आप अपनी कोई पहचान नहीं बना सकी है.हालांकि, लुभावने वादों के जरिए आम आदमी पार्टी के नेताओं ने यूपी में पैर पसारने की कोशिश जरूर की, पर यूपी की जनता उन्हें स्वीकार ही नहीं पा रही है. यानी ‘आप’ सूबे की जनता को लुभाने में असफल रही है. ऐसे में यूपी के विधानसभा चुनावों में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर चुके आप के नेताओं ने समाजवादी पार्टी (सपा) का साथ हासिल करने की मुहिम शुरू की है.
इसके तहत आप के उत्तर प्रदेश प्रभारी संजय सिंह पिछले दो माह में एक से अधिक बार अखिलेश यादव से मिल चुके हैं. लेकिन सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से संजय सिंह की मुलाकातों को सूबे के सियासी जानकार अवसरवाद की पॉलिटिक्स करार दे रहे हैं.
वहीं, आपको याद होगा कि आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने साल 2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी से नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा था. इस पार्टी के अन्य नेताओं ने भी बड़े नेताओं के खिलाफ चुनाव लड़े, लेकिन प्रदेश की जनता के दिलों में वे जगह नहीं बना सके. अभी भी दिल्ली से सटा उत्तर प्रदेश ‘आप’ के रडार से दूर है. जबकि मुख्यमंत्री बनने से पहले तक अरविंद केजरीवाल गाजियाबाद में ही पत्नी के साथ सरकारी क्वार्टर में रहते थे.सूबे के सियासी जानकारों की मानें तो यूपी में अपना आधार बढ़ाने के लिए आम आदमी पार्टी के नेताओं को जनता के बीच जाना चाहिए था. लेकिन जनता के बीच न जाकर पार्टी ने चैनलों और अखबारों में विज्ञापन के जरिए पार्टी को स्टेंड करने की रणनीति बनाई और उस पर खर्च भी किए.पर अंत में कुछ भी हासिल नहीं हुआ. वहीं, यूपी की जनता ने आप की मीडिया मार्केटिंग के फॉर्मूले को पूरी तरह से नकार दिया. हालांकि इसी तरह की सियासत करते हुए आप के नेताओं ने दिल्ली के बाद पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में आप का प्रभाव बढ़ाया है.
दूसरी ओर यूपी में जात-पात और विकास की सियासी का बोलबाला है. यह जानते हुए भी अरविंद केजरीवाल ने यूपी में पार्टी के विस्तार पर ध्यान ही केंद्रित नहीं किया. उन्होंने सिर्फ छह माह पहले पार्टी के सांसद संजय सिंह को यूपी का प्रभारी बनाकर भेज दिया. यहां संजय सिंह ने पार्टी की नीति के तहत सत्तारूढ़ सरकार की योजनाओं को लेकर हवा हवाई आरोप लगाकर अखबार में खबरें छपवाने पर जोर दिया.वहीं, यूपी में पार्टी का विस्तार करने की मंशा के तहत दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया अयोध्या गए. भगवान रामलला के मंदिर में माथा टेका. फिर भी यूपी विधानसभा चुनावों की सौ सीटों पर भी आप को अच्छे प्रत्याशी मिलना मुश्किल लगा तो संजय सिंह ने सपा का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया.इधर, संजय सिंह कई बार अखिलेश यादव से मिलने उनके घर पहुंच गए. अखिलेश यादव प्रदेश में छोटे दलों का एक गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं. इस गठबंधन में आप को भी जगह मिल जाए, संजय सिंह का यह प्रयास हैं. ताकि आप भी सपा के सहयोग से आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी मौजूदगी को ठीक से दर्ज करा सके.
हालांकि, सपा के साथ जुड़ने से उन्हें एक-दो सीटों पर जीत हासिल हो सकती है. ये सीटे हासिल करने के लिए ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कई लोक लुभावन घोषणाएं की हैं. उनकी तमाम घोषणाओं का सच यूपी के लोग जानते हैं. उन्हें पता है कि यूपी में रोजगार दिलाने का दावा करने वाले केजरीवाल ने 426 लोगों को ही सरकारी नौकरी छह साल में दी है, जबकि यूपी सरकार ने साढ़े चार लाख से अधिक सरकारी नौकरी नवजवानों को दी हैं.अखिलेश यादव भी पशोपेश में फंसे हैं. क्योंकि उनके एक ओर चाचा शिवपाल हैं तो दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल की आप. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव भी अपने भतीजे का साथ पाने की जुगत में लगे हैं. खैर, अखिलेश अब शिवपाल के साथ खड़े होंगे या अरविंद केजरीवाल के साथ, यह जल्द ही पता चल जाएगा.
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