सत्यखबर सिवानी मंडी (सुरेन्द्र गिल) – आज के युग में समय के साथ लोगो में बहुत से उन जरूरी मुद्दों पर जागरूकता बढ़ती जा रही जो समाज की रूढ़िवादी सोच या जानकारी के अभाव में कारण समाज में खुलकर बातें नही हो पाती ओर लोग उनपर निर्णय नही ले पाते। लेकिन आज उत्तर भारत में जिस गति से नेत्रदान करने वाले लोगो की संख्या में बढ़ोतरी हुई है , उससे स्पष्ट है की लोग मेडिकल साइंस को समझ रहे है ओर उपसर काम करने वाले लोगो के सहयोग की ओर भी बढ़ रहे है, जिसमे नेत्रदान भी एक बड़ा बदलाव है जो हमारे समाज के एक बड़े हिस्से को जो किसी कारणवश अपनी आँखों की रोशनी खो चुके है। उनकी रोशनी लौटने का काम कर रहा है। लेकिन आज भी दक्षिण भारत की तुलना में उत्तर भारत में मरणोपरांत देहदान करने वाले लोग गिने-चुने ही है।
उसी सन्दर्भ में आज भिवानी जिले के ढाब ढाणी निवासी लोकेश ने अपने जन्मदिवस पर इस अनूठी मुहिम को शरू किया है। लोकेश ने 23वे जन्मदिवस पर खुद ने ही नही बल्कि परिवार समेत देहदान का फॉर्म भरकर मरणोपरांत देहदान का संकल्प लिया है। लोकेश ने बताया की हमारे समाज में आज भी लोग नेत्रदान तक ही समिति रह जाते है, जबकि अस्पतालों में दाख़िल सैंकड़ो मरीज ऐसे होते है जिनको हम एक नई जिंदगी दे सकते है। भारत सरकार ने फ़रवरी १९९५ में”मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम” पारित किया है जिसके अन्तर्गत अंगदान और मस्तिष्क मृत्यु को क़ानूनी वैधता प्रदान की गई है ।
घर में मृत्यु होने के बाद केवल नेत्र और ऊतकों को प्रत्यारोपण हेतु निकाला जा सकता है। जबकि ब्रेन डेड होने की स्तिथि में शरीर के अनेक अंगों को किसी जरूरतमंद के शरीर में प्रत्यारोपित कर उसको नई जिंदगी दि जा सकती है। इसी के साथ साथ हम ऐसा करके मेडिकल स्टूडेंट्स की भी मदद करते है , समाज को कुशल चिकित्सक देने के लिए उसको मानव शरीर रचना का पूरा ज्ञान होना जरूरी है। जो मृत शरीर पर परीक्षण द्वारा ही संभव है। इसके लिए देहदान मृत्यु उपरान्त संपूर्ण शरीर का दान बहुत जरूरी भी हो जाता है । अगर हम वास्तव में सभ्यता का विकास चाहते है। शरीर के सभी भागो की रचना का अध्ययन चिकित्सा छात्रो के किये जाने के बाद म्यूजियम स्पेसिमेन तैयार किये जाते है, जिससे इनका उपयोग भविष्य में भी रिसर्च के लिए किया जा सके। हड्डियां भी रिसर्च के लिए प्रयोग में लाई जाती है। इसी उद्देश्य से हमने आज ये संकल्प लिया है।
गौरमतलब है कि उत्तर भारत तो दक्षिण भारत की तुलना में हम इस मामले में बहुत पीछे चल रहे है। वर्ष 2014 में दिल्ली में सिर्फ 2 हार्ट ट्रांसप्लांट हुए थे, जबकि अकेले चेन्नई में उस साल कुल 35 हार्ट ट्रांसप्लांट हुए थे। हमारे यहाँ इसमें हमारी रूढ़िवादी सोच सबसे बड़ा रोड़ा साबित होती है। उसके बाद अस्पतालों, प्रसाशन की तरफ से भी इस बारे में जागरूकता अभियान नही चलाएं जाते है।
लोकेश ने बताया की मैंने एक दिन किसी हॉस्पिटल में एक बच्चे को देखा जिसके दिल में छेद होने की वजह से उसका ज्यादा समय तक जीवित रहना सम्भव नही था, डॉक्टर्स का कहना था की हार्ट की व्यवस्था अगर परिवार कर दे तो हार्ट ट्रांसप्लांट कर बच्चे को नई जिंदगी दी जा सकती है, लेकिन ऐसा कोई बंदोबस्त वह परिवार नही कर पाया ओर वो बच्चा नही बच पाया। उसी समय मैंने मरणोपरांत देहदान का निर्णय ले लिया था, जिसके लिए मैंने बहुत कोसिसो के बाद परिवार को भी इसके लिए राजी किया, ओर आज परिवार के लोगो को भी इसके लिए सहमत किया की वो लोग भी मरणोपरांत अपना देहदान का फॉर्म भरें।
हम चाहते है कोई भी परिवार अपना बच्चा इस तरह की बेबसी में न खोए की वो गरीब है वो जागरूक नही है वो करें क्या, ये सब चीजें किसी को जीवन देने के आड़े नही आनी चाहिए । अस्पतालों में ही इसकी व्यवस्था हो सकती है अगर सब लोग ब्रेन डेड पर अपने ऑर्गन देने को सहमत हो जाएं ओर इस तरह हम कितने ही साल जीवित भी रह सकते है ओर कितने ही टूटते परिवारों को बचाया जा सकता है ।
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