Story of premier doctor khan sahab
सत्य खबर , नई दिल्ली। क्या किसी मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत जीवन में कंजूसी उसकी अलोकप्रियता और समर्थकों से दूरी बढ़ाने का एक कारण हो सकती है? अविभाजित भारत के एक राज्य नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस के तत्कालीन प्रीमियर डॉक्टर खान साहब (premier doctor khan sahab) के साथ ऐसा ही था , ऐसा लिखा है, कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष और आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद (Maulana Abul Kalam Azad) ने. नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस इकलौता मुस्लिम बाहुल्य प्रांत था, जहां कांग्रेस का मुस्लिम लीग की तुलना में वर्चस्व था. 1937 और 1946 दोनों ही चुनावों में वहां कांग्रेस की कामयाबी का श्रेय खान अब्दुल गफ्फार खान, उनके भाई डॉक्टर खान साहब और उनके समर्थक खुदाई खिदमतगारों को था.Story of premier doctor khan sahab
इस प्रॉविंस को लेकर कांग्रेस खान भाइयों की राय को ही तरजीह देती थी और उन्हीं के नजरिए से वहां के बारे में फैसले लेती थी. कभी-कभी महात्मा गांधी कहते कि खान भाई सीमा प्रांत के बारे में मेरे अंतःकरण के मार्गदर्शक बन गए हैं.
लीग के उभार के साथ राज्य में कांग्रेस की पकड़ हुई कमजोर
1946 में केंद्र में अंतरिम सरकार का गठन हुआ. जवाहर लाल नेहरू इस सरकार के उपाध्यक्ष थे. इस बीच खबरें आ रही थीं कि सीमा प्रांत में मुस्लिम लीग मजबूत हो चुकी है और कांग्रेस समर्थन खोती जा रही है. हालांकि, नेहरू और अन्य कांग्रेसी इसे मानने को तैयार नहीं थे. उन्हें लगता था कि कांग्रेस से नाराज और मुस्लिम लीग के हिमायती अंग्रेज अफसर ऐसी खबरें भेजकर वायसराय लॉर्ड वेवल को गुमराह कर रहे हैं. पंडित नेहरू ने हालात की जानकारी के लिए खुद सीमा प्रांत जाने का फैसला किया. मौलाना आजाद ने अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में दावा किया है कि उन्होंने जवाहर लाल को जल्दबाजी न करने की सलाह दी थी.
नेहरू को करना पड़ा उग्र पठानों का सामना
पेशावर हवाई अड्डे पर पंडित नेहरू को प्लेन से बाहर निकलते ही काले झंडे लिए हजारों पठानों के विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ा. इस भीड़ को इकट्ठा करने और उसे उकसाने में लीग समर्थक अंग्रेजों की खास भूमिका थी. पुलिस मूकदर्शक बनी हुई थी. उनका स्वागत करने पहुंचे कांग्रेसी प्रीमियर (मुख्यमंत्री) डॉक्टर खान साहब और उनके सहयोगी और समर्थक अपने को असहाय पा रहे थे. कार में बैठते समय पंडित नेहरू पर प्रदर्शनकारियों ने हमले की कोशिश की. प्रीमियर डॉक्टर खान ने अपनी रिवाल्वर तानकर भीड़ से नेहरू को किसी तरह बचाया. अगले दिन पंडित नेहरू पेशावर से कबायली इलाकों की यात्रा पर गए. उन्होंने जगह-जगह पाया कि लोग लीग के साथ हैं. कुछ जगहों पर उनकी कार पर पत्थर भी फेंके गए. एक पत्थर नेहरू के माथे पर भी लगा. डॉक्टर खान ने खुद को बेबस पाया. पंडित नेहरू ने बहादुरी और सूझबूझ से प्रदर्शनकारियों के गुस्से को खुद ही काबू किया.
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मेहमाननवाजी के लिए मशहूर पठान करते हैं सामने वाले से ऐसी ही उम्मीद
डॉक्टर खान साहब के प्रीमियर बनने के साथ ही उनके विरोधियों की जमात भी ताकतवर होने लगी थी. खान भाई इस विरोध को समय रहते काबू में करने में चूक गए. मौलाना आजाद के मुताबिक, उनसे ऐसी भी भूलें हुईं, जो सीधे उनकी आदतों और मिजाज की देन थीं. सरहदी पठान अपनी मेहमान नवाज़ी के लिए मशहूर हैं. इस हद तक कि किसी मेहमान को वे अपनी रोटी के आखिरी टुकड़े तक हिस्सेदार बनाते हैं और दस्तरखान पर हमेशा स्वागत करते हैं. लेकिन वे ऐसी ही उम्मीद सामने वाले से भी करते हैं. खासतौर पर उन लोगों से जो ऊंचे ओहदों पर हैं. पठान को सामने वाली की कंजूसी बेहद नागवार लगती है. दुर्भाग्य से बढ़िया माली हालत के बाद भी खान भाइयों का स्वागत-सत्कार का पहलू बेहद कमजोर था और वे कंजूस थे.
मुख्यमंत्री के यहां एक प्याला चाय भी मिलना नहीं था मुमकिन !
मौलाना आजाद के मुताबिक डॉक्टर खान शायद ही कभी किसी को खाने पर बुलाते रहे हों. अगर कभी लोग खाने या चाय के समय पहुंच जाएं तो उन्हें टाल दिया जाता था. उनकी देखरेख में सामान्य शिष्टाचार के लिए जो सरकारी निधि भी इस्तेमाल होती , उसमें बेहद कंजूसी झलकती थी. चुनावों में प्रत्याशियों के लिए कांग्रेस ने उन्हें बड़ी रकम सौंपी लेकिन उन्होंने इसमें से बहुत कम खर्च किया. धन की कमी से अनेक प्रत्याशी हार गए. ऐसे लोगों को जब पार्टी से आई रकम के न बांटे जाने और बेकार पड़ी होने की जानकारी हुई तो वे खान भाइयों के जबरदस्त विरोधी हो गए.
एक मौके पर इलेक्शन फंड के बारे में पेशावर से कांग्रेसी लीडर्स का डेलिगेशन मौलाना से मिलने आया. चाय का समय था. मौलाना के यहां उन्हें चाय और बिस्किट पेश किए गए. एक मेंबर को बिस्किट बहुत अच्छा लगा. उसने इसका ब्रैंड पूछा. फिर मौलाना से कहा कि उन्होंने ये बिस्किट डॉक्टर खान के यहां देखे हैं. लेकिन हममें से किसी से कभी बिस्किट दूर चाय के एक प्याले के लिए भी डॉक्टर खान ने नहीं पूछा. इन छोटी-छोटी बातों ने डॉक्टर खान के बहुत से सहयोगियों को उनसे दूर किया.Story of premier doctor khan sahab
जनमत संग्रह का बहिष्कार, पख्तूनिस्तान की लड़ाई आज भी जारी
अलग पाकिस्तान की भावनात्मक लहर के बीच नॉर्थ वेस्ट प्रॉविंस में लीग का प्रभाव बढ़ता गया. विभाजन को कांग्रेस की औपचारिक सहमति के बाद खान भाई अकेले पड़ गए. जनमतसंग्रह के जरिए पाकिस्तान या भारत किसी एक को चुनने का इकलौता विकल्प था. कांग्रेस कार्यसमिति ने अपने राज्य की स्थिति को अपने मुताबिक सुलझाने के लिए खान भाइयों को अधिकृत किया.
खान अब्दुल गफ्फार ने कहा कि सीमा प्रांत के पठानों का अपना विशिष्ट इतिहास और संस्कृति है. इसलिए जनमत संग्रह पाकिस्तान या भारत में किसी एक को चुनने के बीच सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि एक और विकल्प स्वतंत्र पख्तूनिस्तान भी होना चाहिए. अंग्रेज और लीग इसके लिए कतई राजी नहीं हुए. लॉर्ड माउंटबेटन के साफ इंकार के बाद खान भाइयों ने ऐसे जनमतसंग्रह में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया. उन्होंने पठानों से इसके बहिष्कार की अपील की लेकिन यह अनसुनी रही. बड़ी संख्या में हिस्सा लेने वाले पठानों में अधिकांश ने पाकिस्तान का पक्ष लिया. हालांकि, खान भाई ताउम्र लड़े और बाद की पीढियां आज भी अलग पख्तूनिस्तान की लड़ाई को जारी रखें हैं.
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